10 साल पहले लुप्त गिद्ध राजस्थान में दिखा:25-30 साल जीता है हिमालयन ग्रिफॉन, 5000 मीटर की ऊंचाई से शिकार पर रखता है नजर
जैसलमेर की फतेहगढ़ तहसील के श्री देगराय मन्दिर ओरण से अच्छी खबर आई है। 10 साल पहले जैसलमेर से गायब हुई हिमालयन ग्रिफॉन दुर्लभ गिद्ध प्रजाति अब नजर आने लगी है। ये गिद्ध देगराय ओरण में पर्यावरण प्रेमियों को झुंड में नजर आए हैं। इनके झुंड में नजर आने से पर्यावरण प्रेमियों में खुशी है।
एक साथ नजर आए दुर्लभ गिद्ध
देगराय ओरण में पर्यावरण प्रेमियों और वन्यजीव संरक्षकों द्वारा रोज की जाने वाली निगरानी में बुधवार को एक साथ विभिन्न प्रजातियों के गिद्धों को देखा गया। वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट सुमेर सिंह ने बताया कि दुर्लभ गिद्ध हिमालय से जैसलमेर आते हैं। इनका प्रवास का समय अक्टूबर-नवंबर से फरवरी महीने तक का होता है। लेकिन 10 साल से इनका जैसलमेर आना बंद हो गया था।
इनका पिछले साल से ही अचानक वापस जैसलमेर प्रवास शुरू हुआ है। इस बार ये एक साथ झुंड में नजर आने से हम लोग काफी खुश हैं। ये संकटग्रस्त गिद्ध पर्यावरण को शुद्ध रखने में काफी मददगार होते हैं। ये मरे हुए जानवर खाते हैं जिससे प्रदूषण नहीं फैलता। इनकी वजह से पर्यावरण शुद्धता बरकरार रहती है।
हजारों किलोमीटर की यात्रा कर पहुंचते हैं जैसलमेर
हिमालयन ग्रिफॉन प्रवासी हैं जो सर्दी में भोजन के लिए पहुंचते हैं। ये हिमालय के उस पार मध्य एशिया, यूरोप, तिब्बत आदि शीत प्रदेश इलाकों से आते हैं। तेज सर्दियों में वहां भोजन नहीं मिल पाता। जिले की सर्दी इनके तापमान के अनुकूल होने के कारण वे यहां प्रवास करने को आते हैं। जिले में चूंकि पशुपालन बहुतायत में होता है इसलिए यहां इनको भोजन की कमी भी नहीं रहती है और पर्याप्त भोजन मिल जाता है। मुख्यतया ये मरे हुए पशुओं आदि को खाते हैं जिससे पर्यावरण भी शुद्ध रहता है।
पेस्टिसाइड्स एवं डायक्लोफिनाक के अधिक इस्तेमाल से गिद्ध प्रजाति हो रही विलुप्त
अनुसंधान के अनुसार पेस्टिसाइड्स एवं डायक्लोफिनाक के ज्यादा इस्तेमाल के चलते गिद्ध प्रजाति संकट में पहुंची है। फसलों में पेस्टिसाइड्स के ज्यादा इस्तेमाल से घरेलू जानवरों में पहुंचता है। वहीं मृत पशु खाने से गिद्धों में पहुंचता है। साल 1990 से ही देशभर में गिद्धों की संख्या गिरने लगी। गिद्धों पर यह संकट पशुओं को लगने वाले दर्द निवारक इंजेक्शन डायक्लोफिनाक की देन थी।
मरने के बाद भी पशुओं में इस दवा का असर रहता है। गिद्ध मृत पशुओं को खाते हैं। ऐसे में दवा से गिद्ध मरने लगे। इसे ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने पशुओं को दी जाने वाली डायक्लोफिनाक की जगह मैलोक्सीकैम दवा का प्रयोग बढ़ाया है। यह गिद्धों को नुकसान नहीं पहुंचाती।
बड़ा गिद्ध अथवा जीप्स हिमालयनसीस या हिमालयन ग्रिफॉन एक बड़े आकार का फीके पीले रंग का गिद्ध होता है जो हिमालय में पाया जाता है। हिमालय में यह काबुल से भूटान, तुर्किस्तान और तिब्बत तक पाए जाते हैं। यह एक अनूठा गंजे, पीले व सफेद सिर का गिद्ध है। इसके पंख काफी बड़े होते हैं। इसकी पूंछ छोटी होती है। इसकी गर्दन सफेद पीले रंग की, उड़ते हुए इसका कुछ हिस्सा खाकी व उड़ने वाले पंखों का आखिरी छोर काले रंग का दिखता है। इसका ज्यादातर शरीर हल्के पीले-सफेद रंग का होता है।
ये हिमालय में 1200 से 5000 मीटर तक की ऊंचाई पर देखे जा सकते हैं। इसमें नर और मादा एक जैसे दिखते हैं। ये गिद्ध दिन के समय सक्रिय होते हैं। इस दौरान ये आसमान मे काफी ऊंचाई पर उड़ते हुए मरे हुए जानवर को देख कर एक समूह में उसे खाने के लिए आते हैं। ये मरे हुए पशु को खाते हैं कभी भी खुद शिकार नहीं करते।
25 से 35 साल जीते हैं
ये गिद्ध एक ही जोड़ा बनाते हैं। यह जोड़ा साल दर साल एक ही घोंसले वाली जगह पर बार-बार आते हैं। दोनों मिल कर नया घोंसला बनाते हैं या फिर पुराने घोंसले को फिर से ठीक करके काम में लेते हैं। नर और मादा मिलकर चूजों को पालते हैं। मादा एक ही अंडा देती है। गिद्ध की यह प्रजाति भी धीरे-धीरे कम हो रही है। इसकी औसतन आयु 25 से 35 साल तक होती है।
खत्म हो चुकी है तीन प्रजातियां
पक्षियों की यह प्रजाति धीरे-धीरे कम हो रही हैं। 90 के दशक में इनकी संख्या में एकदम से गिरावट आई थी जिसका मुख्य कारण पशुओं को दी जाने वाली दर्द नाशक दवा डायक्लोफिनाक है। जब ये गिद्ध किसी ऐसे मरे हुए जानवर को खा लेते थे, जिसको डायक्लोफिनाक दवा दी होती थी, तो यह गिद्ध के शरीर में जाकर इसकी किडनी को खराब कर देती और गिद्ध मर जाते हैं।
90 के दशक में भारत के मैदानी हिस्सों में जहां पशुपालन होता था और पशुओं को यह दवा दी जाती थी, वहां से गिद्धों की तीन प्रजातियां लगभग समाप्त हो चुकी हैं। हाल में डायक्लोफिनाक पर प्रतिबंध लगने व संरक्षण की योजनाओं से इन पक्षियों की संख्या का संतुलन बनाया जा रहा है।