Rajasthan State Udaipur

40 दिनों की तपस्या की पवित्रता को साबित करने के लिए ‘अग्नि परीक्षा’, इसे गवरी में ‘माता जी का होला डालना’ कहते हैं

बात जब  गवरी नृत्य के विसर्जन की आती है तो इन्हें इन 40 दिनों की तपस्या की पवित्रता को साबित करने के लिए ‘अग्नि परीक्षा’ से गुजरना पड़ता है। इसे गवरी में ‘माता जी का होला डालना’ कहते हैं। खास बात ये है कि ये रात 12 बजे के बाद होती है, लेकिन इससे पहले माता जी के मंदिर में इसकी अनुमति लेनी होती है।

ऐसी ही अग्नि परीक्षा हुई उदयपुर शहर के आयड स्थित गवरी माता के मंदिर में। रात 12 बजे गवरी में भाग लेने वाले खास सदस्य ( भोपा , राई और बुढ़िया सहित करीब 10 लोग, जो स्वांग रचते हैं ) अपने मुंह और सीने को आग की लपटों के ऊपर से निकालकर पवित्रता को साबित किया। जब तक गवरी नृत्य चलता है, इन्हें गवरी के नियमों जैसे-हरी सब्जी नहीं खाना, मांस-शराब का सेवन नहीं करना और पैरों में जूते-चप्पल नहीं पहनने आदि नियमों का पालन करना पड़ता है।

गवरी के प्यारे लाल गमेती बताते हैं- इस परीक्षा में एक लोटे पर आटे की लोई से एक बड़ा दीपक बनाकर उसके चारों तरफ से बड़ी रूई को घी में भिगोकर जलाया जाता है। फिर गवरी में भाग लेने वाला सदस्य पहले अपने मुंह को आग की लपटों के ऊपर से निकाल कर उसे गिराता है। इसके बाद वो अपने कंधे, सीने, घुटने, पांव को भी इसी तरह आग के ऊपर से निकालता है। सबसे खास बात इसमें किसी कलाकार को कुछ भी नहीं होता है। इतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू बताते हैं- भादवा के महीने में यानी राखी के अगले दिन से पूजा की विधिवत शुरुआत होती है और उसके 40वें दिन विधानपूर्वक इसका समापन होता है। अगर 40 दिनों की गवरी में किसी ने यदि गवरी के नियम का पालन नहीं किया होता है तो ये आग उसे नुकसान पहुंचाती है। अगर पालन ठीक से किया है तो किसी को कुछ नहीं होता है। इस तरह गवरी के सदस्य अपने पवित्रता की अग्नि परीक्षा देते हैं।

गवरी नृत्य मां पार्वती की पूजा-अर्चना से शुरू होता है, जिन्हें इस समुदाय में गोरजा माता भी कहते हैं। जिस दिन गोरजा की प्रतिमा बनाई जाती है, उसे गलावण कहते हैं। जिस दिन इसका विसर्जन किया जाता है उसे वलावण। आदिवासी भील समाज में पार्वती को बहन और बेटी के रूप में मानते हैं।

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